भारत को चाहिए हज़ारों हरि ॐ मुंजाल
लगातार
विशाक्त होते जा रहे सांस्कृतिक वातावरण को, फिर से सुवासित करने के लिए भारत को चाहिए हज़ारों हरि ॐ मुंजाल…
नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न
च। मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।।
भगवान विष्णु देवर्षि नारद से कहते
हैं- मैं न वैकुंठ में निवास करता हूं, न ही योगियों के ह्रदय में… मैं तो उन भक्तों के ह्रदय
में निवास करता हूं, जहां
वह तन्मय होकर, सब
कुछ भूलकर, मुझे भजते हैं, मेरा संकीर्तन करते हैं। और इस बात की पुष्टि ‘स्कन्दपुराण’ में इस भगवद वचन से श्री
भगवन्नाम की महिमा और भी स्पष्ट हो जाती है…
यन्नाऽस्ति कर्मजं लोके वाग्जं
मानसमेव वा। यन्न क्षपयते पापं कलौ गोविन्दकीर्तनम्।।
दिव्य श्रीराम दरबार |
अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है- मन, कर्म, वाणी से होने वाले जितने भी
पाप होते हैं, वह
सभी पाप श्री गोविन्द नाम संकीर्तन में विलीन हो जाते है, मन अश्रुपात के बाद निर्मल
बनकर उभकर प्रकट होता है। ऊर्जा से भरा हुआ। योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो
भक्त मुझे अनन्य भाव से भजता है, मैं उसके सभी पापों को हर लेता हूं। यही मेरे प्रभु
राम सुंदरकांड में कहते हैं…
यही नहीं सुंदरकांड से पहले अयोध्या कांड में भी इसका समानार्थी सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है… जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
श्री हरि ॐ मुंजाल |
श्री अजय याज्ञनिक एवं श्री हरि ॐ मुंजाल |
ऐसी ही एक अलख दिल्ली के केशवपुरम क्षेत्र में आधुनिक संत और आध्यात्मिक ऋषि श्री हरि ॐ मुंजाल ने जगाई… एक ऐसा बीज रोपा और जिसे निरंतर भक्ति रूपी खाद और जल देकर अपने सामने ही वटवृक्ष भी बना दिया। आपको आश्चर्य होगा, जिसका माध्यम बना रामचरितमानस। मानस में भी प्रभु श्रीराम को सर्वाधिक प्रिय सुंदरकांड।
श्री हरि ॐ मुंजाल जी ने सतत् तपस्या के माध्यम से एक ऐसे समूह को तराशा, जिसने अटल, अखंड रहते हुए सभी मतभेदों और मनभेदों पर विजयश्री प्राप्त की। जैसे कोई शिल्पकार अनघड़ पत्थरों को तराशकर उनमें से सुंदर-सुंदर मूर्तियों को निकालकर लाता है, बिल्कुल वैसा ही श्री हरि ॐ मुंजाल जी ने किया। इसके लिए मुंजाल जी अपने माता-पिता के संस्कार और पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों के संचित फल को इसका श्रेय देते हैं। इस तरह ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ धीरे-धीरे अपना स्वरूप लेने लगा। भारतीय संस्कृति प्रेरणा नाम अपने आपमें कितना सार्थक है। भारतीय संस्कृति की प्रेरणा देने वाले बिंदुओं में से, आधुनिक समय में सबसे बड़ा आधार है गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस। और इस ग्रंथ का पांचवा अध्याय सुंदरकांड तो कलयुग का ‘कल्पवृक्ष’ ही माना जाता है।
देवीय शक्ति |
श्री हरि ॐ मुंजाल जी के साथ
जब यह समूह साथ बैठकर सुंदरकांड को गुंजायमान करता है तो
सामूहिक पाठ में साथ बैठे सभी भक्तों की मानो समाधि लग जाती है। यह इस कलयुग में
अपने आपमें अभूतपूर्व है। क्योंकि यह समाधि किसी कुंडलिनी जागरण से कम नहीं होती।
कुंडलिनी जागरण के लिए घनघोर तपस्या करनी पड़ती है। वहीं जब श्री हरि ॐ मुंजाल और उनका
समूह सुंदरकांड पाठ का गायन करता है तो फिर वो रामेश्वरम में
उठती लहरों के समान हो जाता है। स्वर लहरियां एक-दूसरे को पकड़कर आगे बढ़ती सी
प्रतीत होती हैं। एक साथी जब सुंदरकांड की एक पंक्ति को
छोड़ता है, तो दूसरा साथी उस पंक्ति के आखिरी छोर को
पकड़कर आगे ले जाता है… और इस तरह सुंदरकांड पाठ निरंतर गतिमान
रहता है। भक्ति संगीत जीवन की वह ऊंची अवस्था है, जिसे योग, हठयोग या दूसरे किसी साधन से इस युग में
पाना
श्री किशन लाल |
अभी हाल ही में जब ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा
संगठन’ का 33वां वार्षिक समारोह हुआ, तब बहुत सारी छिपी और अनकही
बातों का उद्घाटन मेरे सामने हुआ। दिल्ली के जिस केशवपुरम में यह आयोजन था, वहां का वातावरण बेहद दिव्य
हो गया था। भक्तों का भारी जमावड़ा, सभी राम-नाम की मस्ती में डूबे हुए… रामचरितमानस को लेकर ऐसा
दिव्य वातावरण, वास्तव
में अकल्पनीय था… अभूतपूर्व
तो भक्तों ने बना ही दिया।
‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ के वार्षिक उत्सव के दिन जो
देखने को मिला, वह
अपने आप में किसी भी प्रभु भक्त को रोमांचित कर सकता है। क्योंकि ऐसा दिव्य
वातावरण कभी एक दिन में बनता नहीं है। इसके लिए नींव में समाए हुए वे पत्थर
उत्तरदायी होते हैं, जो
बिना यश की कामना लिए, बुनियाद
में समा जाते हैं। हम उन सभी नींव के पत्थरों को प्रणाम करते हैं, जिन्होंने इस यात्रा को
यहां तक लेकर आने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन सभी प्रभुभक्तों की तरफ
बस यही प्रार्थना है-
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
वर्षों का समर्पित परिश्रम होता है
तब जाकर ऐसे दिव्य वातावरण की अनुभूति होती है। इसमें प्रभु का आशीर्वाद तो
अनिवार्य है ही।
कुछ युवकों ने 1985 में अचानक बैठे-बैठे यह
सोचा क्यों ना हम समाज को कुछ दें, इस जीवन को प्रभु से रूठ जाने से बचाएं। समाज की निधि समाज
को पुनः लौटाएं। ऐसे में श्री हरि ॐ मुंजाल जी बताते हैं- जिस दिन पहला शनिवार था, जब उन्होंने संगीतमय
सुंदरकांड पाठ को आरंभ किया, उसी
दिन अगले 6 महीने
के लिए मित्रों ने, दोस्तों
ने अपने यहां सुंदरकांड कराने का निश्चय कर लिया, जिससे उस समय सांसारिक युवा रहे, आज के आध्यात्मिक युवाओं का
उत्साह सातवें आसमान पर पहुंच गया, उत्साह सातवें आसमान पर और हनुमान जी की कृपा अनुभव… फिर क्या था, निकल पड़ा कारवां एक ऐसे
लक्ष्य की तरफ जहां सभी कुछ राममय हो जाता है...
वर्तमान
समय में जीवन को संस्कार देने वाला एकमात्र सर्वमान्य ग्रंथ है रामचरितमानस… और इस समूह ने संकल्प लिया मानस के सुंदरकांड को व्यक्तिगत तौर
पर घर-घर में पहुंचा देंगे। आज उस प्रयास को 33 वर्ष हो गए। आप सोचिए इतनी लंबी यात्रा में क्या कोई विघ्न नहीं आया होगा ? आजकल एक ऐसा अनुभव भी देखने को आया है कि सामूहिक सुंदरकांड के नाम पर एक व्यक्ति ही पढ़ता रहता है और पीछे भक्त दोहराते हैं। इसमें भी कोई बुराई नहीं है। क्योंकि प्रभु का नाम तो कैसे भी लेना मंगलकारी ही है। फिर भी जिसमें सामूहिकता का भाव नहीं है, वहां पर संसार की साकारात्मक शक्तियों के दक्ष होने की संभावना कम हो जाती है। ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ इसी सामूहिकता के भाव को जगाने के प्रयास में अविरल लगा हुआ है। जब यह समूह सुंदरकांड गायन में तल्लीन होता है तब आप महसूस कर सकते हैं कैसे एक पंक्ति का अवरोह दूसरी पंक्ति के आरोह में घुल जाता है। मानो समुद्र की लहरें संगीत के साथ लयबद्ध होकर नर्तन करने लग जाती हैं।
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।
राम-नाम की मस्ती में डूबकर इस
संसार में रहकर भी विदेह हुआ जा सकता है। अर्थात विरक्ति से प्रीति लगाई जा सकती है।
विरक्ति से प्रीति पाने के लिए आज हमारे पास आधुनिक विदेह संत विद्यमान हैं। श्री
हरि ॐ मुंजाल जी के रूप में…
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
श्री सुरेंद्र अंगरस |
इस कड़ी में एक-एक
नाम बड़े ही सुमधुर हैं। फिर चाहे वो सुरेंद्र भाटिया जी हों, नरेश सूद जी हों, राजेश
शर्मा डी, नीलू जी, रमिता जी, श्रुति नारंग जी हों, शिवांश हों या फिर सुपर्णा
लाल। ये सभी वे कंचन मणियां हैं जिन्हें मैं
थोड़ा-थोड़ा समझ पाया हूं। जानने की तो अभी यात्रा शुरू ही हुई है। ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा
संगठन’ का
प्रबंधन भी उच्चकोटि का है। फिर वो चाहे सांगठनिक प्रबंधन हो या फिर वित्तीय।
जिसमें श्री हरीश लाल जी के साथ मेरा परिचय सबसे पहले आया। मेरे लिए हरीश जी तो
मेरे हनुमान जी जैसे हैं, जिन्होंने
मुझे प्रभु के अनन्य भक्त श्री हरि ॐ मुंजाल जी से मिलवा दिया… जो सुंदरकांड गायन के समय
विदेह हो जाते हैं। उन्हें ऐसी अवस्था में देखना किसी का भी सौभाग्य हो सकता है।
यह मैं अपना अनुभव बता रहा हूं। कभी आपको यदि यह अवसर मिले तो उसे किसी भी
परिस्थिति में हाथ से निकलने मत देना।
श्रुति नारंग |
‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा संगठन’ का एक-एक सदस्य हनुमान जी
के गले में पड़ी हुई माला के वो दाने हैं जिसके एक-एक मनके में राम नाम स्पष्ट रूप
से अंकित है।
सुपर्णा लाल |
आज देश के लगातार विषाक्त होते जा
रहे वातावरण में हमें दिल्ली के लिए कम से कम 1000 और पूरे भारतवर्ष के लिए 10 हज़ार हरि ॐ मुंजाल चाहिए… जो चलते-फिरते संगठनकर्ता
हों।
शिवांश |
हमें इस बात के लिए परिश्रम रूपी
तपस्या करनी ही होगी ताकि हम भारत के वातावरण को सुरम्य बना पाएं। तभी जाकर हमारा
बहु-प्रतीक्षित सपना- श्रीरामचरितमानस को प्रत्येक हिंदू परिवार में पहुंचाने का
पूरा हो पाएगा। और यह जब तक पूरा नहीं हो जाता तब तक विश्राम का कोई अर्थ नहीं है। राम काज कीन्हे बिनु मोहि
कहां विश्राम… हनुमान
जी से हमारी प्रार्थना है कि वो हमें वह ताकत दें जिससे हम इस कार्य को द्रूत गति
से आगे बढ़ा पाएं। प्रभु से प्रार्थना है कि ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा
संगठन’ को
इस काम करने की सबसे बड़ी धुरी बना दें। प्रभु ने अपना विराट रूप द्वापर में
दिखाया, वही
विराट रूप कलयुग में भी दिखाने की कृपा करें।
कि सूर अनेक फिरें कण मांगत
सूर के पद को स्वाद कहां ।
पुनि ताल मंजीरा बजाती फिरी
मीरा मतवारी की चाह कहां।।
सियाराम कथा, कितनों ने लिखी
तुलसी जैसी मरजाद कहां।।
नरसिंह बसे प्रति खंबन में
पर काढ़न को प्रह्लाद कहां।।
आप प्रहलाद तो बनिये, फिर देखिए प्रभु कैसे नहीं
मिलते हैं। और वह पह्लाद बनाने का वातावरण कौन प्रदान कर रहा है ? सीधा का नाम है ‘भारतीय संस्कृति प्रेरणा
संगठन’
श्री वासुदेव कामत की कृति |
Part-1…………………………………………………. जारी
ReplyDelete*****
मेरे जीवन आदर्श सदगुरू संत श्री कबीर साहेब जी कहते हैं :-
" वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखे ,
नदी नहीं पीवे नीर *
परमार्थ के कारण से ,
साधु धरे शरीर ** "
नैतिकता ही वास्तविक धर्म है *
मेरी महान पतिव्रता अर्ध्दांगिनी
श्रीमती बेदिका देवी जी
तो " पतिव्रता धर्म " को ही सर्वोच्च मानती है :-
" एकहीं धर्म एकहीं व्रत नेमा *
काय वचन मन पति पद प्रेमा ** "
वर्ष सन् 2004 ईस्वी में जब मेरे लिए
मेरी महान पतिव्रता अर्ध्दांगिनी
श्रीमती बेदिका देवी जी
ने " प्रथम करवा चौथ व्रत "
किया है ;
तब मैंने पहली बार
सनातन संस्कृति की गरिमा
का अनुभव किया है *
*****